
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस आरएस झा व जस्टिस विजय कुमार शुक्ला की युगलपीठ ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि एमबीबीएस पास करने के बाद मेडिकल पीजी या सुपर स्पेशियलिटी कोर्स करने के लिए इच्छुक डॉक्टर्स को गांवों में एक साल सेवा देना ही पड़ेगी। कोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय का हवाला देते हुए एक साल सेवा की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली याचिकाएं निराकृत कर दीं।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज जबलपुर में पीजी कर रहे डॉ. गौरव अग्रवाल, रीवा मेडिकल कॉलेज के डॉ. वरुण शर्मा, जबलपुर के ही वैभव यावलकर सहित कुल 113 याचिकाओं के जरिए 200 से अधिक डॉक्टर्स ने राज्य सरकार के इन सर्विस कैंडिडेट के मेडिकल पीजी कोर्स प्रवेश नियम को चुनौती दी थी। याचिकाओं में कहा गया कि इस नियम के अनुसार शासकीय सेवारत एमबीबीएस डॉक्टर को पीजी कोर्स में प्रवेश के पूर्व इस बात का अभिवचन देना होता है कि उन्हें पीजी कोर्स करने के बाद कम से कम एक साल प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में अनिवार्य रूप से सेवाएं देनी होंगी।
इस शर्त का पालन करवाने के लिए सरकार प्रवेश के इच्छुक अभ्यर्थी से उसके मूल दस्तावेज जमा करवाती है। साथ ही छात्र को बांड भी भरना होता है। इस शर्त को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त करने का आग्रह किया गया। याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क दिया गया कि यह शिक्षा के संवैधानिक अधिकार का हनन है।
राज्य सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि गत 19 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में दायर याचिकाएं खारिज कर चुकी हैं। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सरकारी डॉक्टरों को पीजी करने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं उपलब्ध करानी ही होंगी। लिहाजा याचिकाएं सारहीन हैं। तर्क को मंजूर कर कोर्ट ने सभी याचिकाएं निरस्त कर दीं। मप्र मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी की ओर से अधिवक्ता सतीश वर्मा ने पक्ष रखा।
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