
सोयाबीन से तेल निकालने के बाद जो भूसी बच जाती है, वह डाई में इस्तेमाल होने वाले रसायनों को अवशोषित कर पानी को साफ कर देती है। इसी तरह डाई के पानी में मुर्गी के पंखों को डाला गया तो वे इन रंगों को अवशोषित कर लेते हैं। केमिकल प्रोसेस के बाद पानी साफ हो जाता है। कोयले की राख और अंडे के छिलके भी खतरनाक रसायनों को पानी में से अवशोषित कर लेते हैं। ट्रीटमेंट के बाद इस पानी को किसी भी नदी-नाले में छोड़ा जा सकता है।
भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (मैनिट) के वैज्ञानिक दंपती ने इन अनुपयोगी चीजों से कम लागत में औद्योगिक अपशिष्ट को साफ करने का आसान तरीका ढूंढ निकाला है। वे लगभग 15 साल से इसी विषय पर शोध कर रहे हैं। इस प्रयोग की वजह से वैज्ञानिकों की रेटिंग करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था क्लैवरेट एनालिटिक्स ने ताजा सूची में डॉ. आलोक और डॉ. ज्योति मित्तल का नाम शामिल किया है। इस सूची 60 देशों के चार हजार वैज्ञानिकों के नाम हैं। इसमें भारत के सिर्फ 10 वैज्ञानिक हैं। डॉ. आलोक के 83 और डॉ. ज्योति के 35 इंटरनेशनल शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।
कम कीमत पर किया जा सकता है पानी का ट्रीटमेंट :- डॉ. ज्योति ने 'नईदुनिया" को बताया कि उद्योगों से निकलने वाले हानिकारक डाई (अपशिष्ट) पानी और मिट्टी दोनों के लिए हानिकारक हैं। खेतों में इस तरह की मिट्टी में उगने वाली फसलों से कैंसर जैसी बीमारी हो रही है। उद्योग के अपशिष्ट को पहले ही साफ करके बहाएं तो मनुष्य और पर्यावरण दोनों के लिए अच्छा होगा। इस पानी को शुद्ध करने के लिए भी उन्होंने आम जीवन में उपयोग न आने वाली चीजों का उपयोग किया।
डॉ. ज्योति के मुताबिक हमारे यहां सोयाबीन बहुत ज्यादा है, तेल निकालने के बाद इसकी भूसी का इस्तेमाल अवशोषक के रूप में हो सकता है। इसी तरह से कोयले की राख, अंडे के शैल, मुर्गी के पंखों और विभिन्न् प्रकार की मिट्टी का उपयोग हो सकता है। इस तरह की तकनीक से बहुत ही कम कीमत पर पानी का ट्रीटमेंट किया जा सकता है। चंदेरी जैसे कई इलाकों में जहां डाई का काम ज्यादा होता है, वहां के उद्योगों से इसके प्रयोग पर चर्चा चल रही है।
आसान हो पेटेंट की प्रक्रिया :- डॉ. आलोक के मुताबिक इस तरह के प्रयोग जो आम जनता को आसान उपाय दे सकते हैं, उनके पेटेंट की प्रक्रिया आसान की जाना चाहिए। भारत में यह बहुत कठिन है। इस वजह से इस तरह के प्रयोग सिर्फ शोधपत्र बनकर रह जाते हैं, जबकि यह तभी सफल है जब इसका उपयोग आम लोग और इंडस्ट्रियां कर सकें। युवा वैज्ञानिकों को नौकरी की सुरक्षा की चिंता नहीं हो, उन्हें वेतन ज्यादा मिले जिससे यहां से पढ़ने के बाद वे बाहर जाने के बजाय देश में ही काम करें। आरएंडडी में फंडिंग को बढ़ाना चाहिए। हमारे यहां अभी ज्यादातर रिसर्च पेपर पब्लिकेशन के लिए हो रही है। इसकी वजह पेटेंट की प्रक्रिया बहुत धीमी और खर्चीली होना है। 15 साल पहले इस सूची में भारत और चीन के वैज्ञानिकों की संख्या बराबरी पर थी, अब चीन के 482 वैज्ञानिक हैं जबकि भारत के सिर्फ 10 हैं।
दुनिया में हो रहे शोध में चीन की भागीदारी 15 फीसदी तक और भारत की सिर्फ तीन प्रतिशत है
सूची में देशों की स्थिति
अमेरिका- 2369 वैज्ञानिक
यूके- 546
चीन- 482
जर्मनी- 356
ऑस्ट्रेलिया- 76
नीदरलैंड- 189
कनाडा- 166
फ्रांस- 157
स्विट्जरलैंड- 133
स्पेन- 115
भारत के इन संस्थानों से अन्य वैज्ञानिकों का हुआ चयन
-जेएनयू दिल्ली के दो
-काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) लखनऊ से एक
-आईआईटी कानपुर से एक
-आईआईटी मद्रास से एक
-भारतियर विश्वविद्यालय कोयंबटूर से एक
-इंस्टिट्यूट ऑफ लाइफ साइंसेस भुवनेश्वर से एक
-इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर दे सेमी एरिड ट्रॉपिक्स हैदराबाद से एक
-मुर्गी के पंखों को धोकर सुखाया। फिर उन्हें डाई वाले पानी में डालकर रातभर छोड़ दिया। सुबह देखने पर पाया कि बर्तन में सिर्फ साफ पानी था। -सोयाबीन की भूसी को ओवन में गर्म करके ट्रीटमेंट के बाद उसे डाई वाले पानी में डाला। कुछ समय बाद पानी साफ हो गया था।
अब अलग-अलग क्षेत्रों की मिट्टी पर कर रहे हैं प्रयोग :- मित्तल दंपती ने अब तक कृषि (भूसी), उद्योग (राख ) और जीव-जंतुओं (मूर्गी के पंख) से निकलने वाले अनुपयोगी कचरे से पानी को साफ करने का तरीका ढूंढा है। अब वे अलग-अलग जगह से लाल, पीली और काली मिट्टी पर यह प्रयोग कर रहे हैं। वे शोध कर रहे हैं कि अवशोषक के रूप में कौन सी मिट्टी ज्यादा बेहतर है।
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